Sahityadarpan

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साहित्यदर्पणः  

व्याख्याकार:
मिश्रो अभिराजराजेन्द्रः

‘संस्कृत काव्यशास्त्र की वैदिक पृष्ठभूमि’

काव्य से ही ‘शास्त्र’ पैदा होता है, यह ध्रुव सत्य है।

पुराकथा, दर्शन, यज्ञमीमांसा, काव्य, नाटक, स्थापत्य, संगीत तथा समस्त कलाएँ वेदमूलक हैं।

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साहित्यदर्पणः  

व्याख्याकार:
मिश्रो अभिराजराजेन्द्रः

‘संस्कृत काव्यशास्त्र की वैदिक पृष्ठभूमि’

  • काव्य से ही ‘शास्त्र’ पैदा होता है, यह ध्रुव सत्य है। काव्यशास्त्र से काव्य नियमित एवं निर्देशित अवश्य होता है, परन्तु पैदा नहीं होता है। चूंकि वेद काव्य है अथवा यह कहें कि वेद में काव्य भी है अतः वेद एवं काव्यशास्त्र के अन्तरसम्बन्ध को नकारा नहीं जा सकता है। वेद समस्त भारतीय विद्याओं का मूलनिस्यन्द है। पुराकथा, दर्शन, यज्ञमीमांसा, काव्य, नाटक, स्थापत्य, संगीत तथा समस्त कलाएँ वेदमूलक हैं। सर्व वेदात्प्रसिद्ध्यति का संभवतः यही अर्थ भी है।
  • परन्तु आचार्य राजशेखर (दशम शती ई०) का चिन्तन थोड़ा भिन्न है। वह काव्यशास्त्र की दैवी उत्पत्ति मानते हैं। भगवान् स्वयम्भू ने काव्यपुरुष को स्वयं काव्यशास्त्रीय तत्त्वों के प्रचारका आदेश दिया। काव्यपुरुष ने अपने १७ शिष्यों को उपदेश दिया जिसके फलस्वरूप सुवर्णनाभ ने रीति, औपकायन ने उपमा, प्रचेता ने अनुप्रास, चित्राङ्गद ने यमक एवं चित्रकाव्य, भरत ने रूपक तथा नन्दिकेश्वर ने रसतत्त्व की व्याख्या की। यह सूची अभी और लम्बी है।
  • राजशेखर के विवरण की अकारण उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि सुवर्णनाभ एवं कुचमार का उल्लेख वात्स्यायनप्रणीत कामसूत्र में भी उपलब्ध है। स्वयं आचार्य भरत अपने पूर्ववर्ती रसाचार्यों के रूप में नन्दिकेश्वर तथा कोहल आदि का उल्लेख करते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि संस्कृत काव्यशास्त्र की परिनिष्ठित परम्परा मात्र उतनी हो प्राचीन नहीं है जितनी आज हमें ज्ञात है।

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